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Saturday 15 September 2012

पुरोगामी विचारांचे संत......कबीर !

पुरोगामी विचारांचे संत......कबीर !

तूने रात गँवायी सोय के, दिवस गँवाया खाय के।
हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय॥

सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे।
माला फेरत जुग हुआ, गया ना मन का फेर रे।
गया ना मन का फेर रे।
हाथ का मनका छाँड़ि दे, मन का मनका फेर॥

दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय रे।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे।

सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे।
दुख में करता याद रे।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद॥ *********************************************************************
कबीर 15 व्या शतकातील संत होते. त्यांनी तत्कालीन रूढींवर प्रहार केले. निर्भीडता हे त्यांच्या ओव्यांचे मुख्य वैशिष्ट्य. तत्कालीन समाजाचे अवगुण त्यांनी अत्यंत परखडपणे दाखवले. या माध्यमातूनच त्यांनी समाजाला थोतांड आणि अवडंबरातून सोडवण्याचा प्रयत्न केला. त्यांच्या ओव्या (दोहे) आजही आपल्याला सन्मार्गावर चालण्याची प्रेरणा देतात...

कबीर आप ठगाइये और न ठगिये कोय।
आप ठग्या सुख उपजै और ठग्या दु:ख होय।।
चोरी, लबाडीपासून दूर राहण्याचा उपदेश करताना संत कबीर सांगतात की, दुस-याला लुटण्यापेक्षा स्वत: लुटले गेलेले बरे. कारण दुस-याला लुटले तर नक्कीच त्याचे रूपांतर दु:खात होणार। 
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सिंहों के लेहड नाही, हंसों की नहीं पाँत।
लालों की नहीं बोरियां, साध न चलै जमात।।
ते सांगतात, सिंह जंगलात एकटाच असतो. सिंहांचे कळप नसतात. तसेच हंसाचे थवे नसतात आणि रत्नांची पोती नसतात. याच प्रकारे संतसुद्धा जाती-जमाती घेऊन चालत नाही. तो एकटाच जगकल्याणासाठी झटत असतो.
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कबीर घास नींदिये, जो पाऊँ तलि होइ।
उडि पडै जब आँख में, बरी दुहेली होइ।।
कबीर या दोह्यात म्हणतात, कुणालाही छोटे लेखू नये। पायाखालचे गवतही जेव्हा डोळ्यात पडते तेव्हा खूप त्रास होतो।
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हीरा तहां न खोलिये, जहँ खोटी है हाटि।
कसकरि बांधो गठरी, उठि करि चलै बाटि।।
या दोह्यात योग्य जागेवर ज्ञानाच्या गोष्टी सांगण्याचा संदेश त्यांनी दिला आहे. ज्ञान हे हि-यासारखे असते. जिथे प्रामाणिक लोक नसतील तिथे हि-याची थैली उघडूच नये. उलट तिला आणखी घट्ट बांधून लवकरच त्या जागेवरून चालते व्हावे.
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सब काहू का लीजिए, सांचा सबद निहार।
पच्छपात ना कीजिये, या कहे कबीर विचार।।
सत्याची महती या दोह्यातून कबीर सांगतात, सत्य कुठेही मिळाले तर ते निसंकोच भावाने ग्रहण करा.  सत्याचा स्वीकार करताना भेदाभेदाचा विचार मनात येऊ देऊ नका. विचार करायची गरज नाही. अत्यंत विचारपूर्वक हा संदेश त्यांनी दिला आहे. 
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पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय
कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को अपने लिये पैनी छुरी ही समझो। उससे तो कोई विरला ही बच पाता है। कभी पराई स्त्री से छेड़छाड़ मत करो। वह हंसते हंसते खाते हुए रोने लगती है।
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पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी सुंगध दूर तक प्रकट होती है।
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पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित हुआ न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।
पोथी पढ़-पढ़कर संसार में बहुत लोग मर गए लेकिन विद्वान न हुए पंडित न हुए। जो प्रेम को पढ़ लेता है वह पंडित हो जाता है।
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कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
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शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द किसी का मूंह नहीं ताकता। वह तो चारों ओर निर्विघ्न विचरण करता है। जब शब्द ज्ञान से अपने पराये का ज्ञान होता है तब गुरु शिष्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है।
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प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय।
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय॥
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।
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गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय।
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय॥
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो
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मुख से नाम रटा करैंनिस दिन साधुन संग
कहु धौं कौन कुफेर तेंनाहीं लागत रंग 


साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।

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सौं बरसां भक्ति करैएक दिन पूजै आन
सौ अपराधी आतमापड़ै चैरासी खान
कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।
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साधू भूखा भाव काधन का भूखा नाहिं
धन का भूखा जी फिरैसो तो साधू नाहिं

कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
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जैसा भोजन खाइयेतैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजियेतैसी वाणी होय

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
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दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।

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जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।

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कुटिल वचन सबतें बुराजारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप हैबरसै अमृत धार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।

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मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
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कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय।
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय॥
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
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अँड. राज जाधव...!!! 
(संदर्भ - हिंदी साहित्य मार्गदर्शन, दिव्य मराठी भास्कर )  

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