माहवारी...?
आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है। पैरों में चलने की
ताक़त नहीं है, जांघों में जैसे
पत्थर की सिल भरी है। पेट की
अंतड़ियां दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई जबड़ों
की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान
में ‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले
फुसफुसाई थी, सारे लोगों
की जमी हुई नजरों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली
में लपेट मुझे ‘वो’ चीज लगभग
छिपाते हुए पकड़ाई थी। आज
तो पूरा बदन ही दर्द से
ऐंठा जाता है।
ऑफिस में कुर्सी पर देर
तलक भी बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने
के इस पांच दिवसीय
झंझट में, छुट्टी ले के भी
तो लेटा नहीं जाता है। मेरा
सहयोगी कनखियों से
मुझे देख, बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे
ही निशाना बनाता है। मैं
अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से
पस्त हूं। अचानक
मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता
हैै, कल के अधूरे काम पर डांट
पिलाता है। काम में चुस्ती
बरतने का देते हुए सुझाव, मेरे
पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह, मेरे
चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमजोरी
पर जाती है, और मेरी
स्थिति शायद उसे व्हीसपर
के देखे किसी ऐड की याद
दिलाती है। अपने स्वर
की सख्ती को अस्सी प्रतिशत
दबाकर, कहता है, ‘‘काम को कर
लेना, दो-चार दिन में दिल
लगाकर।’’ केबिन के बाहर
जाते मेरे मन में तेजी से असहजता
की एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी पीछे
कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’ उभर आने की।
यहां राहत थी अस्सी
रुपये में खरीदे आठ पैड से ‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की। मैं
असहज थी क्योंकि मेरी पीठ
पर अब तक, उसकी निगाहें
गढ़ी थीं, और कानों में हल्की-सी खिलखिलाहट पड़ी
थी ‘‘इन औरतों का बराबरी
का झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने अपना
शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके ये ‘नाज-नखरे’
सह लेते हैं और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
ओ पुरुषो! मैं क्या करूं तुम्हारी
इस सोच पर, कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ
पाती हूं कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में
बहाती हूं, उसी मांस-
लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए, ‘कच्चा
माल’ जुटाती हूं। और इसी
माहवारी के दर्द से मैं वो
अभ्यास पाती हूं, जब अपनी
जान पर खेल तुम्हें दुनिया में
लाती हूं। इसलिए अरे ओ मदो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं इस
दर्द से छटपटाती हूं, क्योंकि
इसी माहवारी की बदौलत
मैं तुम्हें ‘भ्रूण’ से इंसान
बनाती हूं।
रचना - दामिनी यादव
Khup Chan
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